कोई भी मनुष्य इसलिए बड़ा नहीं कि वह अधिक से अधिक सांसारिक पदार्थों का उपभोग कर सकता है। अधिक से अधिक ऐश्वर्य जुटाने वाले तो बहुधा लुटेरे होते हैं। वे संसार को जितना देते हैं, उससे कहीं अधिक उससे छीन लेते हैं।
हम मनुष्य की सेवा-शक्ति को दृष्टि में रख कर ही उसे महान नहीं कह सकते। उसकी महानता की कसौटी यह नहीं हो सकती, क्योंकि इसके द्वारा परखे जाने पर तो अनेक पशु-पक्षी भी उसकी श्रेणी में आ विराजेंगे। सभी जानते हैं कि चूहे, शृगाल, सुअर, कुत्ते, कौए, गिद्ध आदि पशु-पक्षी भी सड़े-गले और मल-मूत्रादि पदार्थों को खाकर वातावरण को शुद्ध कर देते हैं। यह भी प्रकट है कि सड़े-गले पदार्थों को शीघ्र ही हटा देने का जो उत्साह इन पशु-पक्षियों में पाया जाता है, वह प्राय: हम मनुष्य कहलाने वालों में भी नहीं पाया जाता। अतएव न तो कर्म का परिणाम और न कर्मोत्साह ही महानता की कसौटी हो सकता है।
अत: मनुष्य की परख उसके कार्य के परिणाम से नहीं, किन्तु उस कार्य को प्रेरणा देने वाली भावनाओं से की जानी चाहिए। जैसा मनुष्य का भाव हो, उसे वैसा ही समझना चाहिए। भगवान कृष्ण ने भी तो कहा है कि `सभी मनुष्यों की भावना (श्रद्धा) उनके अंत:करण के अनुरूप होती है। इसलिए जो पुरुष जैसी श्रद्धा वाला है, वह स्वयं भी वही है।’
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति-मार्च 1948 पृष्ठ 17
ॐभर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यंभर्गोदेवस्यधीमहिधियोयोन:प्रचोदयात्।।