त्याग और सेवा द्वारा सच्चे प्रेम का प्रमाण दीजिए।

मैंने इतना प्यार दिया पर इसका बदला मुझे क्या मिला?” ऐसे विचार करने में उतावली न कीजिए। बादलों को देखिए वे सारे संसार पर जल बरसाते फिरते हैं, किसने उसके अहसान का बदला चुका दिया? बडे-बडे भूमि खंडों का सिंचन करके उनमें हरियाली उपजाने वाली नदियों के परिश्रम की कीमत कौन देता है? हम पृथ्वी की छाती पर जन्म भर लदे रहते हैं और उसे मल-मूत्र से गंदी करते रहते हैं किसने उसका मुआवजॉ अदा किया है। वृक्षों से फल, छाया, लकड़ी पाते हैं पर उन्हें क्या कीमत देते हैं? परोपकार स्वयं ही एक बदला है। त्याग करना आपको भले ही घाटे का सौदा प्रतीत होता हो पर जब आप उपकार करने का अनुभव स्वयं करेंगे तो देखेंगे कि ईश्वरीय वरदान की तरह यह दिव्य गुण स्वयं ही कितना शांतिदायक है, हृदय को कितनी महानता प्रदान करता है। उपकारी जानता है कि मेरे कार्यों से जितना लाभ दूसरों का होता है उससे कई गुना स्वयं मेरा होता है। ज्ञानवान पुरुष जो कमाते हैं वह दूसरों को बाँट देते हैं, वे सोचते हैं कि प्रकृति जब जीवन वस्तु मुफ्त दे रही है तो हम अपनी फालतू चीजें दूसरों को देने में कंजूसी क्यों करें ? आप बुरे दिनों और विपत्ति की घड़ियों में भी परोपकार के दिव्य गुण का परित्याग मत कीजिए। जब आप किसी को भौतिक पदार्थ देने में असमर्थ हो तो भी अपनी सद्भावनाएँ और शुभकामनाएँ दूसरों को देते रहिए।

निःस्वार्थ भावना से जीवन व्यतीत करने वाले के लिए संसार में निरुत्साह, पश्चाताप और दुःख की कोई बात नहीं है। आप जरा सी बात के आवेश में आकर लडने-मरने पर उतारू मत हूजिये वरन अपने विरोधियों पर दया और प्रेम की वर्षा करते रहिए।

सद्भावना से दिव्य- दृष्टि मिलती है। जिसके हृदय में समस्त प्राणियों के प्रति सद्भावना भरी हुई है यथार्थ में वही दिव्य ज्ञान का अधिकारी है। मनुष्यों’ में देवता वह है जो पवित्र है, निःस्वार्थ है, प्रेमी है, त्याग भावी है। अपन शारीरिक स्वार्थो को परित्याग करने के उपरांत जो संतोष प्राप्त होता है,वह चक्रवर्ती राजा हो जाने के सुख से भी हजारों गुना अधिक है। इसलिए आप स्वार्थ को त्यागने का अभ्यास आरम्भ कीजिए। ज्ञान के द्वारा अपनी पाशविक कंजूस वृत्ति को काबू में लाने का प्रयत्न करिए। तुच्छ स्वार्थों के गुलाम बनने से इंकार कर दीजिए। नम्रता, भलमनसाहत, क्षमा, दया, प्रेम और त्याग भावना को अंदर धारण करने से हृदय में शाश्वत शांति का आविर्भाव होता है। स्वार्थ रहित प्रेम के इस महान नियम में अपने को केंद्रस्थ करना मानो संतोष, शीतलता, विश्राम और ईश्वर को प्राप्त करने के मार्ग पर पदार्पण करना है।

…. क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ १७

ॐभर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यंभर्गोदेवस्यधीमहिधियोयोन:प्रचोदयात्।।

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