तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ४८)

ईश्वर ज्वाला है और आत्मा चिंगारी

सूक्ष्म जीवों की दुनिया और भी विचित्र है। आंखें से न दीख पड़ने वाले प्राणी हवा में—पानी में तैरते हैं। मिट्टी में बिखरे पड़े हैं और शरीर के भीतर जीवाणुओं के रूप में विद्यमान हैं। जीवाणु एवं विषाणु विज्ञान क्षेत्र की खोज को कहीं से कहीं घसीटे लिये जा रहे हैं। शरीर-शास्त्री, चिकित्सा-शास्त्री हैरान हैं कि इन शूरवीरों की अजेय सेना को वशवर्ती करने के लिए क्या उपाय किया जाय? मलेरिया का मच्छर अरबों, खरबों की डी.डी.टी खाकर भी अजर-अमर सिद्ध हो रहा है तो रोगाणुओं, विषाणुओं जैसे सूक्ष्म सत्ताधारी सूक्ष्म जीवों का सामना क्यों कर हो सकेगा? सशस्त्र सेनाओं को परास्त करने के उपाय सोचे और साधन जुटाये जा सकते हैं, पर इन जीवाणुओं से निपटने का रास्ता ढूंढ़ने में बुद्धि हतप्रभ होकर बैठ जाती है। इन सूक्ष्म जीवों की अपनी दुनिया है। यदि उनमें से भी कोई अपनी जाति का इतिहास एवं क्रिया-कलाप प्रस्तुत कर सके तो प्रतीत होगा कि मनुष्यों की दुनिया उनकी तुलना में कितनी छोटी और कितनी पिछड़ी हुई है।

अभी रासायनिक पदार्थों का, यौगिकों का, अणुओं का, तत्वों का विज्ञान अपनी जगह पर अलग ही समस्याओं और विवेचनाओं का ताना-बाना लिये खड़ा है। सृष्टि के किसी भी क्षेत्र में नजर दौड़ाई जाय, उधर ही शोध के लिए सुविस्तृत क्षेत्र खड़ा हुआ मिलेगा। मनुष्य को प्रस्तुत जानकारियों पर गर्व हो सकता है, पर जो जानने को शेष पड़ा है वह उतना बड़ा है कि समग्र जानकारी मिल सकने की बात असम्भव ही लगती है। मनुष्य की तुच्छता का—उसकी उपलब्धियों की नगण्यता का तब बोध होता है जब थोड़े से मोटे-मोटे आधारों से आगे बढ़कर गहराई में उतरा जाता है या ऊंचाई पर चढ़ा जाती है।

ऊपर की पंक्तियां प्रकृति के जड़ पदार्थों और जीव कलेवरों के सम्बन्ध में थोड़ी-सी झांकी कराती हैं और बताती हैं कि यह प्रसार विस्तार कितना अधिक है और उसे समझ सकने में मानवी बुद्धि कितनी स्वल्प है। सृष्टि वैभव को भी अकल्पनीय, अनिर्वचनीय एवं अगम्य ही कहा जा सकता है। फिर उस परमेश्वर के स्वरूप, उद्देश्य एवं क्रिया-कलाप को समझ सकने की बात कैसे बने, जो इस सूक्ष्म, स्थूल, चल, स्थिर प्रकृति से भीतर ही नहीं बाहर भी हैं और यह सारा बालू का महल उसने क्रीड़ा विनोद के लिए रच कर खड़ा कर लिया है।

…. क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ७६
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

ॐभर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यंभर्गोदेवस्यधीमहिधियोयोन:प्रचोदयात्।।

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