ईमानदारी और मेहनत से जो धर्म की कमाई की जाती है उसी से आदमी फलता−फूलता है, यह बात यदि मन में बैठ जाय तो हम सादगी और किफायतशारी का जीवन व्यतीत करते हुए सन्तोषपूर्वक अपना निर्वाह क्यों न करने लगेंगे? और फिर धर्म उपार्जित कमाई का अनीति से अछूता अन्न हमारी नस−नाड़ियों में रक्त बनकर घूमेगा तो हमारा आत्मसम्मान और आत्मगौरव क्यों आकाश को न चूमने लगेगा? क्यों हम हिमालय जैसा ऊँचा मस्तक न रख सकेंगे? और क्यों हमें हमारी महानता का—श्रेष्ठता का—उत्कृष्टता का अनुभव होने से अन्तःकरण में सन्तोष एवं गर्व भरा न दीखेगा?
प्यार, आत्मीयता, ममता की आँखों से जब हम दूसरों की देखेंगे तो वे हमें अपने ही दिखाई पड़ेंगे। अपने छोटे से कुटुम्ब को देखकर हमें आनन्द होता है। फिर यदि हम दूसरों को बाहर वालों को भी उसी आँख से देखने लगें तो वे भी अपने ही प्रतीत होंगे। अपने कुटुम्बियों के जब अनेक दोष दुर्गुण हम बर्दाश्त करते हैं, उन्हें भूलते, छिपाते और क्षमा करते हैं तो बाहर वालों के प्रति वैसा क्यों नहीं किया जा सकता? उदारता, सेवा, सहयोग, स्नेह, नेकी और भलाई की प्रवृत्ति को यदि हम विकसित कर लें तो देवता की योनि प्राप्त होने का आनन्द हमें इसी मनुष्य जन्म में मिल सकता है। हो सकता है कि हमारी भलमनसाहत और सज्जनता का कोई थोड़ा दुरुपयोग कर ले, उससे अनुचित लाभ उठा ले, इतने पर भी उसके ठगने वाले के मन पर भी अपनी सज्जनता की छाप पड़ी रहेगी और वह कभी न कभी उसके लिए पश्चात्ताप करता हुआ सुधार की ओर चलेगा। अनेक सन्तों और सज्जनों के ऐसे उदाहरण हैं जिनने दुष्टता को अपनी सज्जनता से जीता है। फिर चालाक आदमी भी तो दूसरे अधिक चालाकों द्वारा ठग लिये जाते हैं, वे भी कहाँ सदा बिना ठगे रहते हैं। फिर यदि हमें अपनी भलमनसाहत के कारण कभी कुछ ठगा जाना पड़ा तो इसमें कौन बहुत बड़ी बात हो गई, जिसके लिए पछताया जाय। छोटा बच्चा जिसे हम अपना मानते हैं जन्म से लेकर वयस्क होने तक हमें ठगता ही तो रहता है। उस पर जब हम नहीं झुँझलाते तो प्रेम से परिपूर्ण हृदय हो जाने पर दूसरों पर भी क्यों झुँझलाहट आवेगी?
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1962
ॐभर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यंभर्गोदेवस्यधीमहिधियोयोन:प्रचोदयात्।।