नारी का वर्चस्व- विश्व का उत्कर्ष

नर और नारी यों दोनों ही भगवान की दायीं-बायीं ऑंख, दायीं बायीं भुजा के समान हैं । उनका स्तर, मूल्य, उपयोग, कर्त्तव्यत, अधिकार पूर्णत: समान है । फिर भी उनमें भावनात्मक दृष्टि से कुछ भौतिक विशेषताएँ हैं । नर की प्रकृति में परिश्रम, उपार्जन, संघर्ष, कठोरता जैसे गुणों की विशेषता है वह बुद्धि और कर्म प्रधान है । नारी में कला, लज्जा, शालीनता, स्नेह, ममता जैसे सद्गुण हैं वह भाव और सृजन प्रधान है । यह दोनों ही गुण अपने-अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण हं् । उनका समन्वय ही एक पूर्ण व्यक्तित्व का निर्माण करता है ।

सामयिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नर और नारी की इन विशेषताओं का उपयोग किया जाता है । युद्ध कौशल में पुरुष की प्रकृति ही उपयुक्त थी सो उसे आगे रहना पड़ा । जो वर्ग आगे रहता है, नेतृत्व भी उसी के हाथ में आ जाता है । जो वर्ग पीछे रहते हैं उन्हें अनुगमन करना पड़ता हैं । परिस्थितियों ने नर-नारी के समान स्तर को छोटा-बड़ा कर दिया, पुरुष को प्रभुता मिली – नारी उसकी अनुचरी बन गई । जहॉं प्रेम सद्भाव की स्थिति थी वहॉं वह उस आधार पर हुआ और जहॉं दबाव और विवश्सता की स्थिति थी वहाँ दमन पूर्वक किया गया । दोनों ही परिस्थितियों में पुरुष आगे रहा और नारी पीछे ।

नये युग के लिये हमें नई नारी का सृजन करना होगा, जो विश्व के भावनात्मक क्षेत्र को अपने मजबूत हाथों में सम्भायल सके और अपनी स्वाभाविक महत्ता का लाभ समस्त संसार को देकर नारकीय दावानल में जलने वाले कोटि-कोटि नर-पशुओं को नर-नारायण के रूप में परिणत करना सम्भव करके दिखा सकें । नारी के उत्कर्ष – वर्चस्व को बढ़ाकर उसे नेतृत्व का उत्तरदायित्व जैसे-जैसे सौंपा जायेगा वैसे-वैसे विश्व शान्ति की घड़ी निकट आती जायेगी ।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग निर्माण योजना – दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (४.२८)

ॐभर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यंभर्गोदेवस्यधीमहिधियोयोन:प्रचोदयात्।।

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