व्यक्ति की पहचान

व्यक्ति को पहचानने की एक ही कसौटी है कि उसकी वाणी घटिया है या बढ़िया। व्याख्यान कला अलग है। मंच पर तो सभी शानदार मालूम पड़ते हैं। प्रत्यक्ष सम्पर्क में आते ही व्यक्ति नंगा हो जाता है। जो प्राण वाणी में है, वही परस्पर चर्चा- व्यवहार में परिलक्षित होता है। वाणी ही व्यक्ति का स्तर बताती है। व्यक्तित्व बनाने के लिए वाणी की विनम्रता जरूरी है। प्याज खाने वाले के मुँह से, शराब पीने वाले मसूड़े के मुँह से जो बदबू आती है, वाणी की कठोरता ठीक इसी प्रकार मुँह से निकलती है। अशिष्टता छिप नहीं सकती। यह वाणी से पता चल ही जाती है। अनगढ़ता मिटाओ, दूसरों का सम्मान करना सीखो। तुम्हें प्रशंसा करना आता ही नहीं, मात्र निन्दा करना आता है। व्यक्ति के अच्छे गुण देखो, उनका सम्मान करना सीखो। तुरन्त तुम्हें परिणाम मिलना चालू हो जाएँगे।

वाणी की विनम्रता का अर्थ चाटुकारिता नहीं है। फिर समझो इस बात को, कतई मतलब नहीं है चापलूसी- वाणी की मिठास से। दोनों नितान्त भिन्न चीजें हैं। दूसरों की अच्छाइयों की तारीफ करना, मीठी बोलना एक ऐसा सद्गुण है, जो व्यक्ति को चुम्बक की तरह खींचता व अपना बनाता है। दूसरे सभी तुम्हारे अपने बन जाएँगे, यदि तुम यह गुण अपने अन्दर पैदा कर लो। इसके लिए अन्तः के अहंकार को गलाओ। अपनी इच्छा, बड़प्पन, कामना, स्वाभिमान को गलाने का नाम समर्पण है, जिसे तुमसे करने को मैंने कहा है व इसकी अनन्त फलश्रुतियाँ सुनाई हैं। अपनी इमेज विनम्र से विनम्र बनाओ। मैनेजर की, इंचार्ज की, बॉस की नहीं, बल्कि स्वयंसेवक की। जो स्वयंसेवक जितना बड़ा हैं, वह उतना ही विनम्र है, उतना ही महान बनने के बीजांकुर उसमें हैं। तुम सबमें वे मौजूद हैं। अहं की टकराहट बन्द होते ही उन्हें अन्दर टटोलो कि तुमने समर्पण किया है कि नहीं।

हमारी एक ही महत्त्वाकाँक्षा है कि हम सहस्रभुजा वाले सहस्रशीर्षा पुरुष बनना चाहते हैं। तुम सब हमारी भुजा बन जाओ, हमारे अंग बन जाओ, यह हमारी मन की बात है। गुरु- शिष्य एक- दूसरे से अपने मन की बात कहकर हल्के हो जाते हैं। हमने अपने मन की बात तुमसे कह दी। अब तुम पर निर्भर है कि तुम कितना हमारे बनते हो? पति- पत्नी की तरह, गुरु व शिष्य की आत्मा में भी परस्पर ब्याह होता है, दोनों एक- दूसरे से घुल- मिलकर एक हो जाते हैं। समर्पण का अर्थ है- दो का अस्तित्व मिटाकर एक हो जाना। तुम भी अपना अस्तित्व मिटाकर हमारे साथ मिला दो व अपनी क्षुद्र महत्त्वाकाँक्षाओं को हमारी अनन्त आध्यात्मिक महत्त्वाकाँक्षाओं में विलीन कर दो। जिसका अहं जिन्दा है, वह वेश्या है। जिसका अहं मिट गया, वह पवित्रता है। देखना है कि हमारी भुजा, आँख, मस्तिष्क बनने के लिए तुम कितना अपने अहं को गला पाते हो? इसके लिए निरहंकारी बनो। स्वाभिमानी तो होना चाहिए, पर निरहंकारी बनकर। निरहंकारी का प्रथम चिह्न है वाणी की मिठास।

पं श्रीराम शर्मा आचार्य

ॐभर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यंभर्गोदेवस्यधीमहिधियोयोन:प्रचोदयात्।।

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