वीरता की परीक्षा-साहस की कसौटी पर होती है और साहस का स्तर आदर्श की आग में परखा जाता है। आदर्श रहित साहस तो अभिशाप है। उसी को असुरता या दानवी प्रवृत्ति कहते हैं। ऐसा साहस जो आदर्शों का परित्याग कर उद्धत उच्छृंखलता अपनाये, केवल आतंक ही उत्पन्न कर सकता है। उससे क्षोभ और विनाश ही उत्पन्न हो सकता है। ऐसे दुस्साहस से तो भीरुता अच्छी भीरु व्यक्ति अपने को ही कष्ट देता है पर दुष्ट दुस्साहसी अनेकों को त्रास देता है और भ्रष्ट परम्परा स्थापित करके अपने जैसे अन्य अनेक असुर पैदा करता है।
साहस की सराहना तब है जब वह आदर्शों के लिये प्रयुक्त हो। अवाँछनीयता को निरस्त करने के काम आये और सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन में योगदान दे। इस प्रकार की गतिविधियाँ अपनाने वाले सत्साहसी लोगों को सच्चे अर्थों में शूरवीर कहा जा सकता है।
भय और प्रलोभन जिसे कर्तव्य पथ से डिगा नहीं सकते वह सचमुच बहादुर है। जीवन में पग-पग पर ऐसा अवसर आते हैं जिनमें अनीति अपनाकर प्रलोभन पूरा करने को गुंजाइश रहती है। आकर्षण कितनों के ही पैर फिसला देता है। रूप यौवन को देखकर शील सदाचार से पैर उखड़ने लगते हैं। मर्यादायें डगमगाने लगती हैं। पैसे का प्रलोभन समाने आने पर अनीति बरतने में संकोच नहीं होता। कोई देख नहीं रहा हो- भेद खुलने की आशंका न हो तो कोई विरले हो कुकर्म करने से मिलने वाला लाभ उठाने से चूकते हैं। आदर्शों के प्रति यह शिथिलता अन्तरात्मा की सबसे बड़ी दुर्बलता है। लोकलाज के कारण दण्ड भय का ध्यान न रखते हुए अनीति मूलक प्रलोभन से बचे रहना- यह तो संयोग की बात हुई। रोटी न मिली तो उपवास। विवशता ने दुष्कर्म का अवसर नहीं दिया, यह भी अच्छा ही हुआ। प्रतिष्ठा गँवाने की तुलना में लालच छोड़ देना ठीक समझा गया, यह बुद्धिमता और दूरदर्शिता रही, क्षणिक और तुच्छ लाभ के लिये प्रतिष्ठा से सम्बन्धित दूरगामी सत्परिणामों से वंचित होना व्यवहार बुद्धि को सहन न हुआ यह अच्छा ही रहा। पर इसे वीरता नहीं कह सकते।
साहस उसका है जो प्रलोभन के अवसर रहने पर भी- भेद न खुलने की निश्चिन्तता मिलने पर भी अनीति मूलक प्रलोभनों को इसलिए अस्वीकार कर देता है कि वह अपनी कर्तव्यनिष्ठा और आदर्शवादिता को किसी भी मूल्य पर नहीं बेचेगा। जो अमीरी का अवसर गँवा सकता है और गरीबी के दिन काट सकता है पर ईमान गँवाने को तैयार नहीं, वही बहादुरी की कसौटी पर खरा सोना सिद्ध हुआ समझा जायेगा।
✍🏻 पं श्री राम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1972 पृष्ठ 29
ॐभर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यंभर्गोदेवस्यधीमहिधियोयोन:प्रचोदयात्।।