एक संत ने एक विश्व- विद्यालय का आरंभ किया, इस विद्यालय का प्रमुख उद्देश्य था ऐसे संस्कारी युवक-युवतियों का निर्माण करना था जो समाज के विकास में सहभागी बन सकें।
एक दिन उन्होंने अपने विद्यालय में एक वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन किया, जिसका विषय था – “जीवों पर दया एवं प्राणिमात्र की सेवा।”
निर्धारित तिथि को तयशुदा वक्त पर विद्यालय के कॉन्फ्रेंस हॉल में प्रतियोगिता आरंभ हुई।
किसी छात्र ने सेवा के लिए संसाधनों की महत्ता पर बल देते हुए कहा कि- हम दूसरों की तभी सेवा कर सकते हैं, जब हमारे पास उसके लिए पर्याप्त संसाधन हों।
वहीं कुछ छात्रों की यह भी राय थी कि सेवा के लिए संसाधन नहीं, भावना का होना जरूरी है।
इस तरह तमाम प्रतिभागियों ने सेवा के विषय में शानदार भाषण दिए।
आखिर में जब पुरस्कार देने का समय आया तो संत ने एक ऐसे विद्यार्थी को चुना, जो मंच पर बोलने के लिए ही नहीं आया था।
यह देखकर अन्य विद्यार्थियों और कुछ शैक्षिक सदस्यों में रोष के स्वर उठने लगे।
संत ने सबको शांत कराते हुए बोले:- ‘प्यारे मित्रो व विद्यार्थियो, आप सबको शिकायत है कि मैंने ऐसे विद्यार्थी को क्यों चुना, जो प्रतियोगिता में सम्मिलित ही नहीं हुआ था।
दरअसल, मैं जानना चाहता था कि हमारे विद्यार्थियों में कौन सेवाभाव को सबसे बेहतर ढंग से समझता है।
इसीलिए मैंने प्रतियोगिता स्थल के द्वार पर एक घायल बिल्ली को रख दिया था।
आप सब उसी द्वार से अंदर आए, पर किसी ने भी उस बिल्ली की ओर आंख उठाकर नहीं देखा।
यह अकेला प्रतिभागी था, जिसने वहां रुक कर उसका उपचार किया और उसे सुरक्षित स्थान पर छोड़ आया।
सेवा-सहायता डिबेट का विषय नहीं, जीवन जीने की कला है।
जो अपने आचरण से शिक्षा देने का साहस न रखता हो, उसके वक्तव्य कितने भी प्रभावी क्यों न हों, वह पुरस्कार पाने के योग्य नहीं है।’
सदैव प्रसन्न रहिये।
जो प्राप्त है, पर्याप्त है।।
ॐभर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यंभर्गोदेवस्यधीमहिधियोयोन:प्रचोदयात्।।