हित-साधना के दो प्रयाग

लुहार अपनी दुकान पर लोहे के टुकड़ों से तरह तरह की चीजें बनाता रहता है। उन टुकड़ों को वह कभी गरम करने के लिए भट्टी में तपाता है कभी पानी में डालकर ठण्डा कर लेता है। इन विसंगतियों को देखकर कोई भोला मनुष्य असमंजस में पड़ सकता है कि लुहार ने इस दुमुँही प्रक्रिया को क्यों अपना रखा है। पर वह कारीगर जानता है कि किसी लोहे के टुकड़े को बढ़िया उपकरण की शक्ल में परिणत करने के लिये दोनों ही प्रकार की ठण्डी-गरम प्रणालियों का प्रयुक्त होना आवश्यक है।

मनुष्य के जीवन में भी सुख-दुख का, धूप-छाँह का अपना महत्व है। रात-दिन की अँधेरी, उजेली, विसंगतियाँ ही तो कालक्षेप का एक सर्वांगपूर्ण विधान प्रस्तुत करती हैं। यदि मनुष्य सदा सुखी और सम्पन्न ही रहे तो निश्चय ही उसकी आन्तरिक प्रगति रूप जाएगी। जो झटके प्रगति के लिए आवश्यक हैं उन्हें ही हम कष्ट कहते हैं। इन्हें सच्चा भक्त कड़ुई औषधि की तरह ही शिरोधार्य करता है। सन्निपात का मरीज जैसे डॉक्टर को गाली देता है वैसी भूल समझदार आस्तिक ईश्वर के प्रति नहीं कर सकता।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

ॐभर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यंभर्गोदेवस्यधीमहिधियोयोन:प्रचोदयात्।।

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