उपासना और साधना का समन्वय

साधना का दूसरा-पक्ष उत्तरार्ध, उपासना है। विविधविध शारीरिक और मानसिक क्रियाकृत्य इसी प्रयोजन के लिए पूरे किए जाते हैं। शरीर से व्रत, मौन, अस्वाद, ब्रह्मचर्य, तीर्थयात्रा, परिक्रमा, आसन, प्राणायाम, जप, कीर्तन, पाठ, बन्ध, मुद्राएं, नेति, धौति, बस्ति, नौलि, बज्रोली, कपालभाति जैसे क्रियाकृत्य किए जाते हैं। मानसिक साधनाओं में प्राय: सभी चिन्तन परक होती हैं और उनमें कितने ही स्तर के ध्यान करने पड़ते हैं। नादयोग, बिंदुयोग, लययोग, ऋजुयोग, प्राणयोग, हंसयोग, षटचक्र वेधन, कुंडलिनी जागरण जैसे बिना किसी श्रम या उपकरण के किए जाने वाले, मात्र मनोयोग के सहारे संपन्न किए जाने वाले सभी कृत्य ध्यान योग की श्रेणी में गिने जाते हैं। स्थूल शरीर से श्रमपरक, सूक्ष्म शरीर से चिन्तनपरक उपासनाएं की जाती हैं। कारणशरीर तक केवल भावना की पहुँच है। निष्ठा, आस्था, श्रद्धा का भाव भरा समन्वय ‘भक्ति’ कहलाता है। प्रेम-संवेदना इसी को कहते हैं। यह स्थिति तर्क से ऊपर है। मन और बुद्धि का इसमें अधिक उपयोग नहीं हो सकता है। भावनाओं की उमंग भरी लहरें ही अन्त:करण के मर्मस्थल का स्पर्श कर पाती हैं।

मनुष्य के अस्तित्व को तीन हिस्सों में बाँटा गया है – सूक्ष्म, स्थूल और कारण। यह तीन शरीर माने गए हैं। दृश्य सत्ता के रूप में हाड़-मांस का बना सबको दिखाई पड़ने वाला चलता-फिरता, खात-सोता, स्थूल शरीर है। क्रिया शीलता इसका प्रधान गुण है। इसके नीचे वह सत्ता है, जिसे सूक्ष्म शरीर कहते हैं। इसका कार्य समझ और केन्द्र मस्तिष्क है। शरीर विज्ञान में अनाटांमी, फ़िज़ियालोजी दो विभाजन हैं। मन:शास्त्र को साइकोलाजी और पैरा-साइकोलाजी इन दो भागों में बाँटा गया है। मन के भी दो भाग हैं – एक सचेतन, जो सोचने विचारने के काम आता है और दूसरा अचेतन, जो स्वभाव एवं आदतों का केन्द्र है। रक्त संचार, स्वांस-प्रस्वांस, आकुंचन-प्रकुंचन, निमेष-उन्मेष जैसी स्वसंचालित रहने वाली क्रियाएं इस अचेतन मन की प्रेरणा से ही संभव होती हैं। तीसरा कारण शरीर- भावनाओं का, मान्यताओं एवं आकांक्षाओं का केन्द्र है, इसे अन्त:करण कहते हैं। इन्हीं में ‘स्व’ बनता है।

जीवात्मा की मूल सत्ता का सीधा सम्बंध इसी ‘स्व’ से है। यह ‘स्व’ जिस स्तर का होता है, उसी के अनुसार विचारतंत्र और क्रियातंत्र काम करने लगते हैं। जीवन की सूत्र संचालक सत्ता यही है। कारण शरीर का स्थान हृदय माना गया है। रक्त फेंकने वाली और धड़कते रहने वाली थैली से यह केन्द्र भिन्न है। इसका स्थान दोनों ओर की पसलियों के मिलने वाले आमाशय के ऊपर वाले स्थान को माना गया है। साधना विज्ञान में हृदय गुफा में अंगुष्ठ प्रमाण प्रकाश ज्योति का ध्यान करने का विधान है। यहाँ जीवात्मा की ज्योति और उसका निवास ‘अहम्’ मान्यता के भाव केन्द्र में माना गया है। शरीर में इसका केन्द्र जिस हृदय में है, उसे अन्त:करण नाम दिया गया है। ‘कारणशरीर’ के रूप में इसी की व्यवस्था की जाती है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

ॐभर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यंभर्गोदेवस्यधीमहिधियोयोन:प्रचोदयात्।।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *