तटस्थ रहिए—दुःखी मत हूजिये (भाग ३)

जिस प्रकार आवश्यकता को अविष्कार की जननी कहा जाता है इसी प्रकार दुःख को सुख का जनक मान लिया जाय तो अनुचित न होगा। जिसके सम्मुख दुःख आते हैं वही सुख के लिये प्रयत्न करता है। जिसने गरीबी से टक्कर ली है वही अर्थाभाव दूर करने के लिये अग्रसर होगा। दुःख, तकलीफ ही पुरुषार्थी व्यक्ति की क्रियाशीलता पर धार रखती हैं उस पर पानी चढ़ाती हैं। अन्यथा मनुष्य निकम्मा तथा निर्जीव होकर एक मृतक तुल्य बन कर रह जाये।

सुख में अत्यधिक प्रसन्न होना भी दुःख का एक विशेष कारण है। यह साधारण नियम है कि जो अनुकूल परिस्थितियों में खुशी से पागल हो उठेगा, उसी अनुपात से प्रतिकूल परिस्थितियों में दुःखी होगा। सुख प्रसन्नता का कारण होता है, किन्तु इसका अर्थ कदापि नहीं कि आप उसमें इतना प्रसन्न हो जायें कि आपकी अनुभूतियां सुख की ही गुलाम बन कर रह जाये। वे प्रसन्नता परक परिस्थितियों की ही अभ्यस्त हो जायें। ऐसा होने से आपकी सहन शक्ति समाप्त हो जायेगी और जरा-सा भी कारण उपस्थित होते ही आप अत्यधिक दुःखी होने लगेंगे। अस्तु दुःख से बचने का एक उपाय यह भी है कि सुख की दशा में भी बहुत प्रसन्न न हुआ जाये। सन्तुलन पूर्ण तटस्थ अवस्था का अभ्यास इस दिशा में बहुत उपयोगी सिद्ध होगा। तटस्थ भाव सिद्ध करने के लिये दुःख से नहीं सुख से अभ्यास करना होगा। जब-जब मनोनुकूल परिस्थितियां प्राप्त हों, सुख का अवसर मिले तब तब साधारण मनोभाव से उसका स्वागत कीजिये। हर्षातिरेकता में न आइये। इस प्रकार प्रसन्नावस्था में जो कार्य किया अथवा सीखा जाता है वह जल्दी सीखा जा सकता है।
हर्ष के समय जो अपना संतुलन बनाये रखता है, विषाद के अवसर पर भी वह सुरक्षित रहता है। दुःख-सुख में समान रूप से तटस्थ रहना इसलिये भी आवश्यक है कि अतिरेकता के समय किसी बात का ठीक निर्णय नहीं किया जा सकता। हर्ष के समय ठीक बात भी गलत लगती है। इस प्रकार बुद्धि भ्रम हो जाने से दुःख के कारणों की कोई कमी नहीं रहती। हर्ष के समय जब हमें किसी की कोई बात अथवा काम गलत होने पर भी ठीक लगेगी तो फिर भ्रम वश किसी समय भी वैसा कर सकते हैं और तब हमें क्षोभ होगा, जिससे दुखी होना स्वाभाविक ही है।

किसी मनुष्य की भावुकता जब अपनी सीमा पार कर जाती है तो वह भी दुःख का विशेष कारण बन जाती है। अत्यधिक भावुक तुनुक मिज़ाज हो जाता है। एक बार वह सुख में भले ही प्रसन्न न हो किन्तु मन के प्रतिकूल परिस्थितियों में वह अत्यधिक दुःखी हुआ करता है। अत्यधिक भावुक कल्पनाशील भी हुआ करता है। वे इसके एक छोटे से आघात को पहाड़ जैसा अनुभव करता है। एक क्षण दुख के लिये घंटों दुःखी रहता है। जिन बहुत सी घटनाओं को लोग महत्वहीन समझ कर दूसरे दिन ही भूल जाया करते हैं भावुक व्यक्ति उनको अपने जीवन का एक अंग बना लेता है, स्वभाव का एक व्यसन बना लिया करता है।

भावुक व्यक्ति आवश्यकता से अधिक संवेदनशील होता है। यहां तक कि एक बार दुःखी व्यक्ति तो अपना दुःख भूल सकता है किन्तु भावुक व्यक्ति उसके दुःख को अपनाकर महीनों दुःखी होता रहता है। आवश्यक भावुकता तथा संवेदनशीलता ठीक है किन्तु इसका सीमा से आगे बढ़ जाना दुःख का कारण बन जाता है।

…. समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

ॐभर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यंभर्गोदेवस्यधीमहिधियोयोन:प्रचोदयात्।।

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